पुस्तक समीक्षा: शब्द कुछ कहते हैं…
16 Jan 2018,
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पुस्तक: शब्द कुछ कहते हैं…
लेखक: अजय कुमार मिश्र अजयश्री
प्रकाशक: अयन प्रकाशन
कीमत: 200 रुपए
समीक्षक: एमएम. चन्द्रा
अजय कुमार मिश्र अजयश्री का काव्य संग्रह शब्द कुछ कहते हैं प्राप्त हुआ तो मैंने अपने दोस्तों से इस पुस्तक के बहाने चर्चा करी कि इस पुस्तिका ने शब्दों के इतिहास, उदभव और उसकी विकास यात्रा तक हमें चेतनशील किया है। किसी भी कविता में शब्द चयन रचनाकार के इतिहास बोध से जुड़ा होता है और पाठक को भी उसी इतिहास चेतना तक पहुंचना पड़ता है। तब जाकर कविताओं के मर्म तक पहुंचा जा सकता है।
अजयश्री ने अपनी कविताओं में बिम्बों-प्रतिबिम्बों, उपमाओं का प्रयोग कर अपने काव्य संग्रह शब्द कुछ कहते हैं की पहली कविता मनुष्यता के उच्चतर उद्देश्य को पाठकों के बीच इस प्रकार रखती है-
बनना हो तो पवन बनो तुम
जन-जन की सांसो में भर जाओ…
सारी दुनिया को अपनाओ…
आज पूरी दुनिया अलगाव ग्रस्त है मनुष्य सिर्फ अपने बारे में ही सोच रहा है, इसीलिए किसी न किसी को तो आगे बढकर इस समस्या से लड़ना पड़ेगा और इसका समाधान करना पड़ेगा। लेखक भी इसी दुनिया का एक हिस्सा है वो इस समस्या का समाधान हम की भावना को और अधिक विस्तृत आकार प्रदान करके कुछ इस प्रकार व्यक्त करता है-
जब तक आप मैं में रहेंगे
एक दूसरे से लड़ते रहेंगे
मैं से बहार आइये
मैं नहीं हम कहकर गले लग जाइये
लेखक केवल आदर्शवादी कविता ही नहीं लिखता बल्कि उनकी कविताएं समाज की प्रत्येक गतिविधि पर पैनी नजर रखती है। बाढ़ जैसी आपदाओं पर प्रत्येक वर्ष राजनीतिक रोटियां सेकीं जाती हैं। राजनीतिक रुख को इनकी व्यंग कविता इस प्रकार बेनकाब करती है-
हुक्मरानों का एलान है
हर व्यक्ति पर ध्यान है
यू न होने देंगे हम
अगले वर्ष
जल प्रपात रोक देंगे हम
कवि अजयश्री की कवितायें पाठक के साथ स्वयं से और अपने समय से संवाद करती हैं। इसलिए उन्होंने इस पठनीय शैली को और अधिक विकसित करने की संभावनाओं को भी बल प्रदान किया है। जब तक संभानाएं जिन्दा हैं, कविता जिन्दा है तब तक मनुष्यता भी जिन्दा रहेगी।
मैंने कहा चांद से यू घबराते नहीं
अंधेरों से लड़ने वालों के दाग देखे जाते नहीं
यदि कोई कवि है तो वह सवेदनशील ही होता है, नहीं तो वह कवि नहीं माना जाये, उसको कुछ और नाम दिया जाना चाहिए। कवि अपने समय के प्रति, समाज के प्रति उन तमाम मामलों के प्रति संवेदनशील होता है जिससे लेखक और समाज प्रभावित होता है। चैराहों, सड़कों, ढाबों और कारखानों में पिसते बच्चों को देखकर अजयश्री उनकी अनदेखी नहीं कर सके इसीलिए उनके दिल से एक ही आह निकली-
कोई बच्चा बिलख रहा है
खुशी मनाये हम कैसे
देश को आजाद हुए काफी वक्त गुजर चुका है किन्तु देश की अधिकतर आबादी भुखमरी, बेरोजगारी, अज्ञानता की दलदल में फंसती जा रही है। आशा की किरण अमूर्त हो चुकी है। नेताओं पर से जनता का विश्वास उठ चुका है। गणतंत्र सिर्फ कुछ लोगों के लिए ही लाभकारी सिद्ध हुआ है। लेखक भारतीय गणतंत्र पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए कहता है कि
भुखमरी, लाचारी, लुटती इज्जत
और भ्रष्टाचार, सब खत्म कर देंगे?
भ्रम अच्छा है
पैंसठ वर्ष का हो गया गणतंत्र
पर दिखता अभी बच्चा है
अजयश्री ने वह सृजन करती, सिलवटें जैसी कविताओं में महिला विमर्श को उकेरने की कोशिश की है। वहीं समान कानून, साबुन, शो प्लांट और तम्बाकू जैसी कविताओं के माध्यम से समाज के विविध यथार्थ को रूबरू किया है। डाकू कौन कविता सभ्य समाज को आइना दिखाती है। इस कविता संग्रह में उनकी कुछ छोटी-छोटी कविताएं गलतियां, बसंत, मेरी मधुशाला आदि मानव के अंतर्मन में चल रही अभिव्यक्तियां भी पठकों के दिल में जगह बनाने में कामयाब रहीं हैं।