चुनावी भाषण और अर्थव्यवस्था की गुलाबी तस्वीर

-चंद्रभूषण- अभी जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी एक चुनावी सभा में अर्थव्यवस्था पर नोटबंदी का कोई प्रभाव न होने की बात कह चुके हैं, तब हाल में मौजूदा वित्त वर्ष की तीसरी, यानी ऐन नोटबंदी वाली तिमाही में जीडीपी ग्रोथ के अनुमानित आंकड़ें पर गहराई से विचार करना और भी जरूरी हो जाता है। इस सरकारी अनुमान में नोटबंदी का अर्थव्यवस्था पर नगण्य प्रभाव पड़ने का अनुमान लगाया गया है, लेकिन साथ में यह भी कहा गया है कि सटीक आकलन के लिए आंकड़े अभी उपलब्ध नहीं हैं। मौजूदा वित्त वर्ष के लिए ग्रोथ रेट पिछले बजट में 7.5 फीसदी रहने की बात कही गई थी, लेकिन बाद में इसे घटाकर 7.1 प्रतिशत पर ला दिया गया था। 2017 की आखिरी तिमाही (अक्टूबर-दिसंबर) में इसे 7.0 प्रतिशत बताया गया है। यानी नोटबंदी ने अर्थव्यवस्था को कुछ खास नुकसान नहीं पहुंचाया। हकीकत यह है कि लगभग सारे उद्योगों ने ठीक इसी तिमाही के लिए अपने जो अलग-अलग आंकड़े जारी किए, उसमें ज्यादातर की बिक्री में वृद्धि के बजाय संकुचन दर्ज किया गया था। इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण है आटो इंडस्ट्री, जिसके एक पुरोधा राजीव बजाज ने हाल में नैसकाम के एक आयोजन में मोटरसाइकिल बिक्री के नकारात्मक आंकड़ों का हवाला देते हुए नोटबंदी को एक विध्वंसकारी नीति बताया था। ऐसे में ज्यादातर विदेशी विशेषज्ञों के लिए यह समझना मुश्किल है कि आखिर किस इंडस्ट्री के असाधारण प्रदर्शन के बल पर अक्टूबर से दिसंबर 2017 के तीन महीनों में अर्थव्यवस्था पिछले साल की इसी अवधि की तुलना में सात फीसदी आगे चली गई। दुनिया की जानी-मानी बिजनेस न्यूज एजेंसी ब्लूमबर्ग ने जितने भी विशेषज्ञों की उद्धृत किया है, सभी का स्वर संदेह का है। हाल यह है कि कंपनियों द्वारा बैंकों से कर्ज उठाने की दर अभी ऐतिहासिक रूप से न्यूनतम स्तर पर चल रही है। उनकी तरफ से कर्ज की मांग आए भी तो अपने पास नकदी की बहुतायत होने के बावजूद बैंक उन्हें कर्ज देने से पहले हजार बार सोचेंगे। कारण यह कि उनका संतुलन बट्टा खाते में गए कर्जों की वजह से बुरी तरह गड़बड़ाया हुआ है। भारतीय रिजर्व बैंक के नए गवर्नर विरल आचार्य भारतीय बैंकों के डूबे हुए कर्जों का हाल देखकर जापान के खोए हुए दशक की याद करने को मजबूर हो गए। ऐसे में अर्थव्यवस्था में गतिशीलता का अकेला जरिया जबर्दस्त सरकारी खर्चे ही हो सकते हैं। सवाल यह है कि क्या सरकार इतने बड़े खर्च के लिए जरूरी टैक्स जुटा सकती है? हाल की प्रोक्योरमेंट पालिसी (सरकारी खरीद नीति) में उसने साल में दो लाख करोड़ रुपये का सामान घरेलू कंपनियों से खरीदने की बात कही है। अच्छा होगा कि वह अपने वायदे पर खरी उतरे और इस खरीदी के अलावा देश में इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं की झड़ी लगा दे। लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था के सामने आगे मुश्किलें जितनी बड़ी दिख रही हैं, उन्हें देखते हुए नोटबंदी के आघात से वी-शेप्ड रिकवरी सपने की संपत्ति जैसी ही कोई चीज लगती है। दो बाहरी मुश्किलों- फेडरल रिजर्व समेत दुनिया की सभी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में ब्याज दरें बढ़ाने का रुझान, और कच्चे तेल की बढ़ती कीमतों- का जिक्र हम पहले से करते आ रहे हैं। तीसरी मुश्किल हमारे अपने रिजर्व बैंक की तरफ से आने वाली है, जिसने आने वाले दिनों में ब्याज दरें नरम के बजाय सख्त करने के संकेत हाल की मुद्रानीति में दे रखे हैं। ऐसे में प्रधानमंत्री अपने चुनावी भाषणों में अर्थव्यवस्था की गुलाबी तस्वीर भला क्यों खींच रहे हैं?